KAVITANAAMA

गांँव वाली चाची

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आज बरसों पीछे मन भाग रहा है,तो सोचा उन बीते स्वर्णिम पलों से डायरी के पन्ने स्याह कर लूँ। 

विवाह के 2 वर्ष पश्चात में अपने पति और छः माह की बिटिया के साथ लमही रहने के लिए आ गई, फलों का बगीचा और सामने फूलों और हरी घास के लॉन वाला हवेली नुमा घर मुझे पहले दिन तो बहुत खाली-खाली सा लगा था, लेकिन दूसरे दिन जैसे ही मैंने दरवाजा खोला तो सामने दंत विहीन श्वेत केश के साथ लाल रंग की बड़ी सी बिंदी लगाए साधारण साफ सूती साड़ी पहने मुस्कुराती हुई एक वयोवृद्ध महिला खड़ी थी।
मैंने आंँखों में प्रश्न लिए उनकी ओर देखा,तो वह हंसती हुई बोली, “मैं चाची हूंँ”, पूरे गांँव की, इस नाते तुम्हारी भी चाची हुई, अंदर तो आने दो। इतना कहकर वह बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए, घर में आकर विराजमान हो गई।

मैं सम्मोहित सी उनके पीछे पीछे चल कर सामने बैठ गई।

चाची ने बोलना शुरु किया, “अब भला यह भी कोई बात हुई कि तुम गांँव में रहने आई और मुझे बताया भी नहीं, यह छोटी सी बच्ची जो गोद में है, इसके लिए दूध का इंतजाम हुआ कि नहीं, मेरे घर पर गाय हैं, जब तक ग्वाले का इंतजाम ना हो, तब तक मैं इसके लिए रोज दूध दे जाया करूंगी।” मैंने कहा, नहीं चाची आप क्यों तकलीफ करेंगी, मैं इंतजाम कर लूंगी।

चाची ने हंसकर कहा, मुझे पता है, कि तुम शहरी लोग किसी का एहसान कहांँ लेते हो, लेकिन मैं कोई अहसान नहीं कर रही, यह मेरी भी तो पोती है, इस नाते मेरा भी तो कुछ फर्ज बनता है।

इतना अपनापन, बिना किसी पूर्व परिचय के, देख कर मेरी आँखें भर आई।

चाची के अधिकार भरे अपनेपन ने मुझे निःशब्द कर दिया था। दो-तीन दिनों में ही चाची के आने जाने के कारण मेरा वहांँ मन लगने लगा था।
मेरे घर से दो चार कदम की दूरी पर ही चाची का घर था। धीरे-धीरे मैंने भी उनके घर आना जाना शुरु कर दिया।

चाची के घर में एक गाय और थोड़ी सी खेती लायक जमीन थी, जिसमें थोड़ी बहुत फसल और सब्जियाँ उगा कर चाची स्वयं को दिनभर व्यस्त रहती थी।

किसी के घर कोई जलसा हो या मातम, चाची की उपस्थिति अनिवार्य हुआ करती थी। शादी ब्याह में रीति रिवाज समझाती चाची, गर्भवती बहुओं को नसीहते देती चाची, न जाने उनके करिश्माई व्यक्तित्व में क्या था? कि हर एक व्यक्ति उनकी बातों का पालन भी करता था।

सातवें दशक के समय पहुंचती भी उम्र में भी गजब का फुर्तीलापन,सयानापन और अपनापन था।

उनके घर में कोई सब्जी उगे, तो पूरे गांँव में बाँटनें निकल पड़ती थी, स्वयं के लिए बचता है कि नहीं इसकी चिंता किए बगैर। ऐसी शाही फकीरी तो गांव वासियों को शहरों में तो कभी नहीं दिख सकती, शहरों में तो लोग किसी को देखकर वस्तुएं छिपाने लगते हैं, यह सोचकर कि कोई मांग न ले।

लेकिन गाँवों का भोलापन, निश्छलता तो उसकी आत्मा का सौंदर्य होता है, यह शहरी लोग कभी जान भी ना पाएंगे।

एक बार मैंने चाची से कहा, कि आप इतनी मेहनत से सब्जियां उगाती हैं, फिर पूरे गांँव को मुफ्त में खिलाती हैं, कभी-कभी तो आपके लिए बचती ही नहीं, इतनी दानी क्यों बनती हैं? आप की मेहनत पर पहले आपका हक है।

चाची ने हंसते हुए कहा, कि बिना दांँत के, मैं कितना खाऊंगी? मुझे दूसरों को खिलाकर जो खुशी मिलती है, उसी से मेरा पेट भर जाता है। फिर थोड़ी गंभीर होकर बैठ गई, तो मैंने पूछा, आप अचानक इतने गंभीर क्यों हो गई? मेरी बातों का बुरा लगा क्या? तो बोली, नहीं, नहीं ऐसी कोई बात नहीं।

मुझे ऐसा लगा, जैसे वह कुछ कहना चाह रही हैं, लेकिन कह नहीं रही है। मैं भी उनके करीब बैठ गई और उनके चेहरे की ओर एकटक देखती रही।

चाची को लगा, कि बिना सुने, मैं वहांँ से खिसकने वाली नहीं, तो बोलना शुरू किया, “जीवन जब तक हंसी-खुशी चल रहा है, ठीक है, लेकिन एक दिन तो सभी को जाना है।

तुम्हारे चाचा तो, मेरे जीते जी एक फिरंगन के साथ चले गए, बाल बच्चे बड़े हुए तो अपनी अपनी दुनिया में रम गए।

तो मैंने भी इस गांँव को ही अपनी दुनिया बना ली।” इस गांँव के लोग ही मेरे अपने लोग हैं, इन्हें खुश देख कर खुश हो लेती हूंँ, दुःखी देखकर रो लेती हूंँ। इस गांँव से इतना नाता तो बना लिया है, कि जब चार कंधो की जरूरत पड़े, तो मुझे किसी का इंतजार ना करना पड़े और जब तक तथाकथित अपने लोग पहुंचे, तब तक मेरा सारा काम गांव वालों द्वारा संपन्न हो जाए।

बस इतनी सी अभिलाषा मन में लेकर पूरे गांँव में खुशियांँ बाँटती रहती हूँ,कि इसके बदले मुझे अंतिम समय में किसी की प्रतीक्षा न करनी पड़े, क्योंकि जीते जी तो केवल प्रतीक्षा ही की है, मरने के बाद भी प्रतीक्षा करूंँ, यह मुझसे न होगा।

मैं हतप्रभ होकर यह सुनती रही और सोचती रही, कि दुःखों का असीम हो जाना ही तो वैराग्य है, जहाँ दुःख को भी इंसान सुख में परिवर्तित कर लेता है।

पिताजी के अंग्रेजी, उर्दू के कुहासे के बीच, मैंने अपनी माँँ के लोकगीतों को ही अधिक आत्मसात किया। उसी लोक संगीत की समझ ने मेरे अंदर काव्य का बीजा रोपण किया। "कवितानामा" मेरी काव्ययात्रा का प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पूर्व अनेक पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशनार्थ प्रेषित की, लेकिन सखेद वापस आती रचनाओं ने मेरी लेखनी को कुछ समय के लिए अवरुद्ध कर दिया था। लेकिन कोटिशः धन्यवाद डिजिटल मीडिया के इस मंच को, जिसने मेरी रुकी हुई लेखनी को पुनः एक प्रवाह, एक गति प्रदान कर लिखने के उत्साह को एक बार फिर से प्रेरित किया। पुनश्च धन्यवाद!☺️ वंदना राय

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